कविता : ठण्ड बढ़ी ज्यादा

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ठण्ड बढ़ी ज्यादा


मौसम ने जब करवट बदली
ठण्ड बढी़ ज्यादा,
कम्बल ओढ़ के किस कोने में
दुबके सूरज दादा।

नये साल में धीरे धीरे
अपना जोर दिखाया,
ठिठुरन बढ़ गई और हवा ने
अपना रौब जमाया।
कोहरा ऐसा लगता जैसे
उड़ने लगा बुरादा,
कम्बल ओढ़ के किस कोने में
दुबके सूरज दादा।

आलस सा भर जाता है फिर
कौन काम पर जावे,
बैठे रहें रजाई में हम
और न कुछ अब भावे।
इतनी विनय प्रभु जी आगे
ठण्ड बढे़ न ज्यादा,
कम्बल ओढ़ के किस कोने में
दुबके सूरज दादा।

दादा जी बीमार उन्हें भी
सर्दी बहुत सताती,
दादी झांक रहीं खिड़की से
धूप नहीं आती।
इस मौसम से उबरें अब तो
सबका यही इरादा,
कम्बल ओढ़ के किस कोने में
दुबके सूरज दादा।

कब तक दुबके रहें घरों में
बतलाओ भगवान,
गलियां सडकें ठिठुरन से हैं
देखो तो सुनसान।
विनती करता भक्त तुम्हारा
इक सीधा सादा,
कम्बल ओढ़ के किस कोने में
दुबके सूरज दादा।


सतीश श्रीवास्तव
मुंशी प्रेमचंद कालोनी करैरा

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