कहानी-वैध जी
वैध रघुवर प्रकाश शास्त्री अपनी छोटी सी ही उम्र में अपने क्षेत्र का ख्यातिनाम चिकित्सक बन गया था। मात्र पच्चीस की ही तो उम्र थी उसकी जब आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली में रघुवर ने मास्टर डिग्री हासिल कर ली थी।
कसम ली थी कि सारी उम्र आयुर्वेद के नियमों व सिद्धान्तों पर चल कर ही उपचार एक सेवा कार्य के रूप में ही करूँगा , लिहाज़ा अपने नाम के पहले डॉक्टर की जगह वैध लिखता था।
काफी लम्बे समय तक केवल जड़ी बूटियों, देशी दवाओं व चूरन चटनी का ही उपयोग कर चिकित्सा करता रहा, नाम मात्र की फीस मरीजों से लेता था क्योंकि आयुर्वेद के सिद्धान्तों के अनुसार मरीज से मात्र उतने ही पैसे लिए जाएं, जिसमें दी गयी औषधि का मूल्य और स्वंय के परिवार का पेट भरने लायक ही मिलता रहे।
कठिन से कठिन बीमारियों का इलाज रघुवर के लिए वायें हाथ का खेल था जैसे कि ईश्वरीय कृपा हो गई हो उस पर ।
शादी के बाद पत्नी सीमा ने एक दिन रघुवर के बालों में अंगुलियां चलाते हुए कहा – “तुम्हें नहीं लगता रघु…..की तुम इतने काबिल डॉक्टर होने के बाद भी , नाम मात्र की ही फीस लेते हो।”…
“मेरे भी कुछ उसूल, कुछ सिद्धान्त हैं सीमा….. मैं उनसे परे हटकर कोई काम नहीं करूंगा…… चाहे कुछ हो जाये।” रघुवर ने सीमा की आंखों में झांकते हुए पूरे विश्वास से कहा ।
रघुवर का जबाव सुनकर सीमा फिर बोली – ” अरे यार…… ..कहीं उसूलों और सिद्धान्तों पर चल कर पैसे कमाए जाते हैं क्या…..परिवार नहीं चलते ऐसे ,……जैसा तुम सोचते हो।” सीमा की अंगुलियां अनवरत रघुवर के बालों से खेल रहीं थीं। …..बात को आगे बढ़ाते हुए फिर सीमा बोली- ” चलो कोई नहीं…… कल से मैं भी बैठूंगी तुम्हारे साथ क्लीनिक पर……और मैं संभालूंगी तुम्हारे पैसे का हिसाब किताब, ……अरे पागलों जैसी बातें करते हो एलोपैथी के जमाने में भी देशी दवाओं से जनता का इलाज कर इतना नाम कमा रहे हो।
….. कोई तरीका है ये तुम्हारा,……. कि पैसे नाम मात्र ही लूंगा।”…..लगातार बोलती जा रही पत्नी की बात रघुवर चुपचाप सुनता जा रहा था, आखिरकार सीमा भी गणित विषय मे मास्टर डिग्री प्राप्त लड़की जो थी।
सीमा के दवाखाने में बैठने के साथ ही फीस दुगनी हो चुकी थी। पर सटीक इलाज के चलते मरीजों को ज्यादा दिक्कत नहीं आ रही थी। दवाखाने पर भीड़ बढ़ने के साथ ही सीमा की पैसों की भूख भी बढ़ती जा रही थी। इस काम में रघुवर भी अपनी मूक सहमति जता चुका था। दो साल के भीतर ही आलीशान मकान बनने के साथ – साथ घर में कई महंगे इलेक्ट्रॉनिक व अन्य सामान भी आ चुके थे, पुरानी बाइक की जगह महंगी कार ले चुकी थी। समय पंख लगाकर उड़ता जा रहा था।
बारहवीं कक्षा में पढ़ रहे इकलौते बेटे ने भी पैसे उड़ाने शुरू कर दिए थे , गलत संगत में पड़े बेटे को देखने की फुर्सत दोनों में से किसी को नहीं थी।
पैसे की चकाचौंध में रघुवर भी अपने उसूलों और सिद्धान्तों को भूल कर ‘ वैध रघुवर प्रकाश शास्त्री’ से ‘डॉ0 आर प्रकाश’ हो चुका था। ….समय की मांग के अनुसार देशी दवाओं का स्थान इंजेक्शन और ड्रिप की बोतलों ने ले ली थी।
सीमा अपनी कामयाबी पर फूली नहीं समा रही थी। सभी को बताती थी कि उसने ‘ कैसे एक साधारण से वैध को लखपति डॉक्टर बना दिया।’ पैसे के घमंड में चूर सीमा अब किसी को भाव नहीं देती थी।
रघुवर के मित्र ने एक दिन शिकायती लहजे में रघुवर से कहा – ” यार रघुवर …..कभी अपनी औलाद पर भी ध्यान दे लिया कर….. यार वो अभी पिद्दी सा…… बारहवीं में पढ़ रहा है….. और तूने उसे कार भी दे दी।”…. इसके आगे मित्र कुछ बोल पाता सीमा ने बात काटते हुए कहा-..”क्या भाई साहब आप भी……ये तो अपने समय में साइकिल और बाइक से आगे नहीं बढ़ पाए …….अब बेटे को तो मजे कर लेने दो। अब है गाड़ी… तो चला रहा है……कौन सा वो शराब पीकर लड़कियां घुमाता है।”……..
अवाक रह गया सीमा की बात सुनकर मित्र भी। मन ही मन सोचने लगा कि अब भाभी को कौन समझाए कि उनका सर्वगुण सम्पन्न बेटा यही सब तो कर रहा है।
शाम को एक दिन मोबाइल की घण्टी सुनकर जब रघुवर ने मोबाइल उठाया तो दूसरी तरफ से पुलिस स्टेशन से इंस्पेक्टर की आवाज आई-…”डॉक् साहब….. आपके बेटे का एक्सीडेंट हो गया है…..उसकी तेज रफ्तार कार डिवाइडर से टकरा कर पलट गई है …..आपके बेटे और उसके साथ बैठी तीनों लड़कियों की हालत गम्भीर है……साथ ही कार से शराब की दो बोतलें भी मिली हैं।”
लाख कोशिशों के बावजूद बेटे को नहीं बचाया जा सका। सदमे के मारे रघुवर अपना आपा खो चुका था, वहीं सीमा ने इसे ईश्वर की नियति मानकर अपने आप को समझा लिया था। आखिरकार दुखी कब तक होंगे, दवाखाने पर बैठ कर पैसे भी तो कमाने हैं, बेटे के चले जाने से जिंदगी रुक थोड़े ही जाएगी।
सदमे से निकलकर रघुवर भी दुबारा जिंदगी को पटरी पर लाने की कोशिश कर रहा था।
एकदिन अचानक मरीज देखते देखते रघुवर को सिर में तेज दर्द हुआ, उल्टी होने के साथ ही चक्कर खाकर गिर पड़ा। सीमा तत्काल अपने पति को लेकर शहर के वरिष्ठ चिकित्सक के पास पहुंची। अपने क्लीनिक के मातहतों को सीमा हिदायत देती गयी थी – “देखो जब तक मैं नही आ जाती तब तक मरीजों को जाने न दें।” ….आखिर मरीजों से फीस भी तो लेनी थी। बिल्कुल अकेली थी सीमा रघुवर के मित्र भी उसकी बातों को अनसुना कर चुके थे। रघुवर को भी किसी अनहोनी की आशंका होने लगी थी। किसी तरह धीरे से बोलते हुए सीमा से कहा- “देखो सीमा मुझे कुछ ठीक नही लग रहा है। लगता है मेरी बीमारी गम्भीर है।”…..आगे कुछ बोल पाता रघुवर उससे पहले ही सीमा बोल पड़ी। …”आप थोड़ा सब्र भी कर लो…..देखते हैं न …..डॉ0 को देखने तो दो।….आखिर कब काम आएगा ये पैसा….देखना तुम सब चले आएंगे अभी दौड़े दौड़े।…..समझो तुम बहुत ताकत होती है पैसे में।” पैसे की मद में चूर सीमा को अभी भी मात्र पैसा ही नजर आ रहा था।
तमाम जांचों , सी टी स्कैन बगैरह से पता चला कि रघुवर को ब्रेन ट्यूमर है जो काफी फैल चुका है। डॉ0 ने सीमा को बुला कर समझाया ” देखिए मिसेस प्रसाद हालात अच्छे नही हैं , यहां कुछ नही हो सकता … बेहतर हो आप अपने साथ किसी और को भी ले लें ….क्योंकि यहाँ इनका इलाज संभव नहीं, इन्हें मुम्बई ले जाना होगा और यदि वहां भी बात न बनी तो विदेश भी ले जाना पड़ सकता है।”…… ” जी सर, देखती हूँ मैं।”….. किसको बुलाती सीमा , पैसे के अलावा उसका और कोई साथी व रिश्तेदार भी तो न था। यहां तक कि अपने ससुराल पक्ष से भी सीमा सम्बन्ध तोड़ चुकी थी। सीमा के जेठ भी रघुवर को कह चुके थे कि ” भाई अब तुमहारा हमारा कोई वास्ता नहीं” …..आखिरकार रघुवर का मन नही माना, घुटने पेट को ही नबते हैं, ये सोच कर उसने अपने भाई को फोन कर बुला लिया। पर अब भी सीमा को अपने जेठ से ज्यादा अपने कमाए धन पर भरोसा था। कमाया हुआ पैसा पानी की तरह बहाने के बाद भी जब डॉक्टरों ने जबाव दे दिया तो रघुवर सोचने लगा -……काश मैं आज सीमा की बात न मानता और अपने सिद्धान्तों पर चलता रहता तो शायद ये हालत मेरी नही होती, न जाने कितने लोगों की बद्दुआ होगी इसमें …..जो ये दिन मुझे आज देखने पड़ रहे हैं ‘ आँखों में आंसू भर आये थे उसकी।’ ‘ सब कुछ नहीं होता पैसा, आज मैंने पैसे के साथ सम्बन्ध भी कमाए होते तो बूढ़े भाईसाहब को भी इतना कष्ट नहीं देखना पड़ता। आखिर कौन भाई होगा जो अपने छोटे भाई को मृत्यु सैया पर छोड़ कर जाए। सीमा के बर्ताव और रघुवर की हालत देख , रघुवर के भाईसाहब भी अपने घर की राह पकड़ चुके थे।
थकी हारी सीमा भी रघुवर को बापिस घर ले आई ये सोच कर कि अब पैसे बर्वाद करने से कोई फायदा नहीं, डॉक्टरों ने स्पष्ट बोल दिया था कि चाहो तो एक बार अपने मन की तसल्ली को, अमेरिका में और दिखा लो हालांकि अब कोई चांस नहीं हैं बचने के । पैसे को ही अपनी जिंदगी बना बैठी सीमा सोचने लगी ……”काश रघु के पास बैठ कर मैं भी थोड़ा बहुत डॉक्टरी सीख लेती तो रघु के मरने के बाद मैं ही चला लेती ये क्लीनिक”।
वहीं पास में रखी कुर्सी पर सीमा निढाल होकर बैठ गई ।
-डॉ0 बृजेश कुमार अग्रवाल
वार्ड नं0 7, डेनिडा रोड
करैरा