लघुकथा…भृष्टाचार

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लघुकथा…
भृष्टाचार
साहब अपने दफ्तर में अखबार पढ़ रहे थे, दरवाजे पर चपरासी एक टूटे से स्टूल पर बैठा हुआ था तभी अंदर से साहब के जोर जोर से दहाड़ने की आवाज चपरासी के कानों में पड़ी-” मिस्टर तुम्हारे काले कारनामों का पूरा चिट्ठा पढ़ लिया है मैंने.. पूरी जांच भी करा ली है मैंने.. अब तुम्हें कोई नहीं बचा सकता है.. ।
मैंने तुम्हैं दो दिन का पर्याप्त समय भी दिया इसके बाद भी तुमने आना मुनासिब नहीं समझा..
अरे भाई समझते क्यों नहीं कि थोड़ा बहुत तुम समझ लेते तो थोड़ा बहुत हम समझ लेते.. चलो घण्टे भर का समय और दिया तुम आते हो तो ठीक वरना फिर चिड़िया मेरे हाथ से फुर्र हो जाएगी।
बाहर चरमराते हुए स्टूल पर बैठे चपरासी ने सब समझ लिया था कि साहब किसी मुर्गा से बात कर रहे थे उसके भी चेहरे पर हरियाली सी आ गयी।
थोड़ी ही देर बाद एक आदमी हाथ में एक मोटा सा लिफाफा लिए हुए भीड़ को चीरता हुआ साहब के केविन की बढ़ा तो चपरासी ने अपना पैर दरवाजे के दूसरे कौने पर लगा दिया जैसे किसी टोल टैक्स नाके पर बैरियर लग जाता है… टोल चुकाओ और आगे बढ़ो।
चपरासी ने अपने अंगूठा के पास की उंगली पर अंगूठा घुमाया।
वह आदमी समझ गया और सौ का करारा नोट थमा दिया तो चपरासी ने भी बैरियर खोल दिया।
उस आदमी ने अंदर जाकर साहब को लिफाफा थमा दिया और देरी के लिए क्षमा मांगते हुए चपरासी के भृष्ट आचरण की शिकायत कर दी।
साहब ने लिफाफा अपनी जेब के हवाले करते हुए कहा- ” क्या बताएं यार.. इन चपरासियों की चोरी चकारियों से बहुत परेशान हूँ साला आफिस भी बदनाम होता है ,इनको मैंने कई बार डांट डपट लगा दी कि सुधर जाओ.. सुधर जाओ वरना किसी दिन मार खाओगे किंतु चपरासी की कौम है कि सुधरने का नाम ही नहीं लेती..
चलो सरकार तो प्रयास कर ही रही है कि जल्द ही भृष्टाचार खत्म हो।
– सतीश श्रीवास्तव
मुंशी प्रेमचंद कालोनी करैरा

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