एक जमाना था जब हर महीने की पहली तारीख को सुबह सुबह रेडियो पर एक गाना अवश्य और अनिवार्य रूप से सुनाया जाता था और इस गाने को बच्चे भी दोहराया करते थे।
दिन है सुहाना आज पहली तारीख है
खुश है ज़माना आज पहली तारीख है
पहली तारीख अजी पहली तारीख है
बीवी बोली घर ज़रा जल्दी से आना, जल्दी से आना
शाम को पियाजी हमें सिनेमा दिखाना, हमें सिनेमा दिखाना
करो ना बहाना हाँ बहाना बहाना
करो ना बहाना आज पहली तारीख है
खुश है ज़माना आज पहली तारीख है
पहली तारीख अजी पहली तारीख है…
यह गाना तब इतना अच्छा और सामयिक लगता था क्योंकि उस समय हर नौकरपेशा की तनख्वाह हर हाल में और हर हालात में एक तारीख को ही मिला करती थी …मुलाजिम चाहे सरकारी हो अथवा गैर सरकारी।
काम पर आने की तारीख कोई भी हो उसका हिसाब किताब पहली तारीख पर ही किया जाता था यही कारण था कि उस दौरान हर महीने की पहली तारीख किसी त्योहार से कम नहीं होती थी..।
उस काल के साहित्यकार पहली तारीख के विषय को केन्द्र बिंदु में रख कर साहित्य का सृजन भी किया करते थे ,पगार,तन्ख्वाह, वेतन, सैलरी आदि से लेकर पैकेज तक की यह यात्रा काफी बदलाव पूर्ण रही है और जब से तन्ख्वाह की राशि सीधे बैंक में आने लगी तब से पहली तारीख का महत्व और पहली तारीख का वह त्योहार वाला वातावरण समाप्त ही हो गया ।
तब कितना अच्छा लगता था जब पापा पहली तारीख को जेब भरके नोट और थैले में ग्रहस्थी के सामान के साथ सबके लिए कुछ न कुछ लेकर आते थे ,बच्चे भी पहली तारीख के गीत के साथ जागते थे तो वहीं शाम को गांव के बाहर वाले पहाड़ की घाटी पर पहुँच कर बड़ी बेसब्री से इंतजार करते थे अपने पापा का,,,जैसे ही आते दिखाई देते तो उछलकूद करने लगते और उनकी साइकिल के पीछे दौड़ते दौड़ते घर तक पहुँचते थे तब वास्तव में उन खुशी के पलों पर साहित्यकार कलम चलाते थे तो वहीं दूसरा पहलू भी छिपा नहीं रहता था.
मेरी एक कविता “पहलीतारीख “1980 में स्वदेश ग्वालियर के अंक में प्रकाशित हुई थी…
पहली तारीख का महत्व कौन न जाने यार,
क्या बचपन क्या बुढापा सेठ और साहूकार।
सेठ और साहुकार सभी इसको पहचानें,
स्वर्ण दिवस सम नौकरपेशा इसको मानें।
पहली तारीख की सुबह बड़ी पापिनी होय,
फरमाइसों के ढेर से चैन न पावै कोय।
चैन न पावै कोय द्वारौ खटखट खटकै,
जिनकौ लै कैं खा गये द्वारें सिर पटकै।
मैं कहता चिल्लाय कहाँ से यह दिन आया,
स्वप्न दिखा कर खूब हंसा कर हमें रुलाया।
अब न पहली तारीख को किसी की तन्ख्वाह मिलती है और न वैसी खुशी का माहौल होता है और अब रेडियो भी नहीं कहता सुबह सुबह खुश है जमाना……..
सतीश श्रीवास्तव
मुंशी प्रेमचंद कालोनी करैरा
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