ओरछा। आचार्य वरुण के सान्निध्य में ओरछा बेतवा नदी के किनारे सानंद संपन्न हुआ आचार्य श्री ने इस पर्व का महत्व बतलाते हुए आगे बताया की श्रावणी उत्सर्ग उपाकर्म,
हिन्दू पंचांग के अनुसार श्रावण मास में की पूर्णिमा श्रावण या श्रावणी पूर्णिमा कहलाती है। रक्षाबंधन के दिन श्रावणी उपाकर्म त्योहार भी मनाया जाता है। वैसे यह कार्य कुंभ स्नान के दौरान भी होता है। यह कर्म किसी आश्रम, जंगल या नदी के किनारे संपूर्ण किया जाता है। मतलब यह कि घर परिवार से दूर संन्यासी जैसा जीवन जीकर यह कर्म किया जाता है। यह कार्य यज्ञोपवती धारण करने, बदलने या उपनयन करके के लिए होता है।
- श्रावण पूर्णिमा पर रक्षासूत्र बांधने, यज्ञोपवीत धारण करने, व्रत करने, नदी स्नान करने, दान करने, ऋषि पूजन करने, तर्पण करने और तप करने का महत्व रहता है।
- श्रावणी पूर्णिमा के दिन किसी नदी के किनारे किसी गुरु के सान्निध्य में रहकर श्रावणी उपाकर्म करना चाहिए। इस दौरान व्यक्ति कठिन उपवास करते हुए जप, ध्यान या तप करता है।
- श्रावण माह में श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को श्रावणी उपाकर्म प्रत्येक हिन्दू के लिए जरूर बताया गया है। इसमें दशविधि स्नान करने से आत्मशुद्धि होती है व देव ऋषि पितृ तर्पण से तीनों ऋणों से हम मुक्त होते हैं एवं तर्पण से उन्हें भी तृप्ति होती है।
- श्रावणी पर्व वैदिक काल से शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना जाता है। प्राचीनकाल में ऋषि-मुनी इसी दिन से वेदों का पाठ करना शुरू करते थे।
- श्रावणी उपाकर्म में यज्ञोपवीत पूजन और उपनयन संस्कार करने का विधान है। मतलब यह कि श्रावणी पर्व पर द्विजत्व के संकल्प का नवीनीकरण किया जाता है। उसके लिए परंपरागत ढंग से तीर्थ अवगाहन, दशविधस्नान, हेमाद्रि संकल्प एवं तर्पण आदि कर्म किए जाते हैं।
- चंद्रदोष से मुक्ति के लिए श्रावण पूर्णिमा श्रेष्ठ मानी गई है।
- इस दिन पेड़-पौधे लगाने का भी खास महत्व होता है। वृक्षारोपण करने पर अनंत गुणा पुण्य लाभ होता है।
- श्रावणी उपाकर्म में पाप-निवारण हेतु पातकों, उपपातकों और महापातकों से बचने, परद्रव्य अपहरण न करने, परनिंदा न करने, आहार-विहार का ध्यान रखने, हिंसा न करने, इंद्रियों का संयम करने एवं सदाचरण करने की प्रतिज्ञा ली जाती है।
- श्रावणी उपाकर्म के 3 पक्ष हैं- प्रायश्चित संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय।
प्रायश्चित्त संकल्प : इसमें हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता दिशा देते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन करने के विधान है।
संस्कार : उपरोक्त कार्य के बाद नवीन यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण करना अर्थात आत्म संयम का संस्कार होना माना जाता है। इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है।
स्वाध्याय : उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है।
वर्तमान समय में वैदिक शिक्षा या गुरुकुल नहीं रहे हैं तो प्रतीक रूप में यह स्वाध्याय किया जाता है। हालांकि जो बच्चे वेद, संस्कृत आदि के अध्ययन का चयन करते हैं वहां यह सभी विधिवत रूप से होता है।