ओरछा। आचार्य वरुण जी बताया कि श्रावणी उपाकर्म के आयोजन काल के बारे में धर्म ग्रंथों में लिखा गया है कि “जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, श्रावण मास के श्रवण व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) को उपाकर्म होता है।” इस अध्ययन सत्र का समापन ‘उत्सर्जन’ या ‘उत्सर्ग’ कहलाता था। यह सत्र माघ शुक्ल पक्ष प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चलता था। श्रावण शुक्ल पक्ष पूर्णिमा के शुभ दिन ‘रक्षाबंधन’ के साथ ही श्रावणी उपाकर्म का पवित्र संयोग बनता है। विशेषकर यह पुण्य दिन ब्राह्मण समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है।
विधि
श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष हैं-
प्रायश्चित्त संकल्प
संस्कार
स्वाध्याय
उपाकर्म में सर्वप्रथम होता है ‘प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प’। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गाय के दूध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नान कर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषि पूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं। इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और ‘द्विज’ कहलाता है।[१]
स्वाध्याय
उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस सत्र का अवकाश समापन से होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में ‘श्रावणी पूर्णिमा’ के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है।